Tuesday, 19 May 2020

लैंसडाउन Beautiful Hill Station

लैंसडाउन खूबसूरत हिल स्टेशन


उत्तराखंड राज्य के पौड़ी जिले में स्थित लैंसडाउन एक छावनी शहर है। जिसकी खूबसूरत देखते ही बनती है। उत्तराखंड के गढ़वाल जिले में स्थित लैंसडाउन बेहद खूबसूरत पहाड़ी हिल स्टेशन है।

यहां का मौसम पूरे वर्ष बेहद सुहावना रहता है।  हर तरफ हरियाली आपको अलग दुनियां का एहसास कराती है। लैंसडाउन की ऊंचाई समुद्रतल से लगभग 1706 मीटर है। कहा जाता है कि इस जगह को अंग्रेजों ने पहाड़ों को काटकर बसाया था।

औपनिवेशिक काल के दौरान यह स्वतंत्रता सेनानियों का प्रमुख स्थान था। अंग्रजों ने इस स्थान का गढ़वाल राइफल्स प्रक्षिक्षण केद्र के रूप् में विकसित किया। आज यहां भारतीय सेना का गढ़वाल राइफल्स कमांड ऑफिस स्थित है।

हरे भरे देवदार के जंगलों से घिरा यह हिल स्टेशन सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। साथ ही, यह पर्यावरणीय पर्यटन के लिए भी उत्तम स्थान है।

इसकी स्वस्थ जलवायु और प्राकृतिक सुंदरता से आकर्षित होकर, उन्होंने यहां एक छावनी की स्थापना की। भारतीय सेना की प्रसिद्ध गढ़वाल राइफल्स का यहां कमांड ऑफिस है।

lansdown

लैंसडाउन जाने के लिए बेस्ट टाइम 

वैसे तो लैंसडाउन में मौसम सालभर ही सुहावना रहता है। यहां गर्मी भी ज़्यादा नहीं पड़ती। मार्च से जून के बीच यहां काफी खुशनुमा मौसम रहता है, वहीं दिसंबर से फरवरी के बीच कड़ाके की ठंड पड़ती है। कई बार तापमान शून्य तक चला जाता है। हालांकि सर्दियों के दौरान बर्फबारी देखने लायक होती है।

फरवरी-मार्च के दौरान यहां शिवरात्रि का सेलिब्रेशन होता है, जिसका दृश्य काफी मनोरम होता है। लैंसडाउन जाने के लिए सबसे बेस्ट टाइम है मार्च से नवंबर के बीच। उस वक्त न तो गर्मी होती है और न ही ज़्यादा ठंड

लैंसडाउन के प्रसिद्ध पर्यटक स्थल

वीकएंड पर अगर आप लैंसडाउन जा रहे हैं, तो जाहिर है आपके पास वक्त की कमी होगी, लेकिन यह वक्त छोटे से लैंसडाउन को घूमने के लिए काफी है। इतने वक्त को आप चाहें, तो किसी होटल के गार्डन में सुस्ता कर बिता लें या लैंसडाउन के चक्कर काटकर, क्योंकि इस छोटे से हिल स्टेन में देखने लायक सभी जगह काफी नजदीक हैं।

भुल्ला ताल: 

होटल में अपना सामान रखकर आप भुल्ला ताल का रुख कर सकते हैं, जो एक छोटी सी झील है। मन करे, तो इसमें बोटिंग कर लें या इसके किनारे पार्क में बैठकर हंसते-खेलते पर्यटकों की खुशी में शामिल हो जाएं।

bhula tal
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टिप एन टॉप: 

मन करे, तो टिप एन टॉप चले जाएं, जहां से दूर-दूर तक पर्वतों और उनके बीच छोटे-छोटे कई गांव नजर आते हैं। इनके पीछे से उगते सूरज का नजारा अलौकिक लगता है। अगर मौसम साफ हुआ, तो बर्फ से ढके पहाड़ों की लंबी श्रृंखला नजर आ सकती है। वैसे अक्टूबर-नवंबर और मार्च-अप्रैल में मौसम साफ रहने की संभावना ज्यादा रहती है।

view point
view point


चर्च और वॉर मेमोरियल: 

कुछ वक्त टिफिन टॉप में बिताने के बाद चर्च देख सकते हैं। गढ़वाल राइफल्स की वीरगाथा की झलक पाने के लिए शाम 5 बजे से पहले वॉर मेमोरियल देख सकते हैं। इसके बिल्कुल पास में है, परेड ग्राउंड, जिसे आम पर्यटक बाहर से ही देख सकते हैं।

church
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मंदिर: 

शाम को सनसेट का खूबसूरत नजारा देखने के लिए संतोषी माता के मंदिर जाएं, जो शायद लैंसडाउन की सबसे ऊंची पहाड़ी पर बना हुआ है। लैंसडाउन में घूमने का दोगुना लुत्फ चाहें, तो पैदल घूमें।



temple
temple

temple
temple

ताड़केश्वर मंदिर: 

अगली सुबह लैंसडाउन से कुछ किलोमीटर की दूरी पर भैरवगढ़ी या ताड़केश्वर मंदिर तक ट्रेकिंग कर सकते हैं। दोनों जगहों तक गाड़ी से भी जा सकते हैं, लेकिन चीड़, देवदार, बुरांश और बांज के घने जंगलों से ट्रेकिंग करते हुए यहां तक पहुंचने का अलग ही रोमांच है।


temple
temple




रोमांच भी, सुकून भी: कई पर्यटक लैंसडाउन में हफ्ते भर रहना पसंद करते हैं, क्योंकि यह शांत और खूबसूरत होने के साथ ही विकसित भी है। भारत में इस तरह के हिल स्टेशन बहुत कम हैं। कुछ पर्यटकों के लिए ट्रेकिंग, बाइकिंग, साइकलिंग जैसे एडवेंचर करने की सुरक्षित जगह है लैंसडाउन, तो कुछ पर्यटक फैमिली के साथ वीकएंड मनाने के लिए यहां आते हैं।



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उत्तराखंड के प्रसिद्ध व्यंजन

उत्तराखंड के प्रसिद्ध व्यंजन

उत्तराखंड की खूबसूरती का हर कोई दीवाना है, लेकिन कहीं ऐसा ना हो कि आप इस खूबसूरती को देखकर उत्तराखंड के प्रसिद्ध व्यंजन ही खाना भूल जाएँ। ऐसा कहा जाता है, कि जो व्यक्ति एक बार उत्तराखंड के पारंपरिक व्यंजनों का स्वाद चख लेता है, वो कभी उस स्वाद को भूल नहीं पाता है।

पहाड़ी भोजन न सिर्फ स्वाद में आगे होता है, बल्कि यह पौष्टिक भी होता है। इसलिए तमाम लोग आज इसे एक नया रूप दे रहे हैं।

आलू के गुटके

आलू के गुटके विशुद्ध रूप से कुमाऊंनी स्नैक्स हैं। इसके लिए उबले हुए आलू को इस तरह से पकाया जाता है कि आलू का हर टुकड़ा अलग दिखे। इसमें पानी का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं होता। मसाले मिलाकर इसे लाल भुनी हुई मिर्च व धनिए के पत्तों के साथ परोसा जाता है। स्वाद में वृद्धि के लिए इसमें जख्या के तड़के की अहम भूमिका होती है। आलू के गुटके मंडुवे की रोटी और चाय के साथ भी खाए जा सकते हैं।


aaloo ke gutke
aaloo ke gutke


भांग या तिल की चटनी

भांग या तिल की चटनी बनाने के लिए इनके दानों को पहले गर्म तवे या कढ़ाई में भूना जाता है। फिर इन्हें सिल या मिक्सी में पीसा जाता है। इसमें जीरा पाउडर, धनिया, नमक और स्वादानुसार मिर्च डालकर अच्छे से सभी को सिल में पीस लिया जाता है। बाद में नींबू का रस डालकर इसे आलू के गुटके, अन्य स्नैक्स, रोटी आदि के साथ परोसा जाता है। इस चटनी का स्वाद अलौकिक होता है।


bhaang ki chatni
bhaang ki chatni

कुमाऊंनी रायता

कुमाऊं का रायता देश के अन्य हिस्सों के रायते से काफी अलग होता है। इसे आमतौर पर दोपहर के भोजन के साथ परोसा जाता है। इसमें बड़ी मात्रा में ककड़ी (खीरा), सरसों के दाने, हरी मिर्च, हल्दी पाउडर और धनिए का इस्तेमाल होता है। इस रायते की खास बात छनी हुई छाज (प्लेन लस्सी) होती है।


Kumauni Raita
Kumauni Raita

मंडुवे की रोटी

मंडुवे में बहुत ज्यादा फाइबर होता है। इसलिए इसकी रोटी स्वादिष्ट होने के साथ स्वास्थ्यवद्र्धक भी होती है। मंडुवे की रोटी भूरे रंग की बनती है। क्योंकि इसका दाना गहरे लाल या भूरे रंग का होता है, जो कि सरसों के दाने से भी छोटा होता है। मंडुवे की रोटी को घी, दूध या भांग व तिल की चटनी के साथ परोसा जाता है। कई बार पूरी तरह से मंडुवे की रोटी के अलावा इसे गेंहू की रोटी के अंदर भरकर भी बनाया जाता है। ऐसी रोटी को लोहोटु (डोठ) रोटी कहा जाता है। जबकि, गेहूं के आटे व मंडुवे को मिलाकर जो रोटी बनती है, उसे ढबड़ि रोटी कहते हैं।

MANDUA KI ROTI
MANDUA KI ROTI


कंडाली का साग


कंडाली के साग में बहुत ज्यादा पौष्टिकता होती है। कंडाली को आमतौर पर बिच्छू घास भी कहते हैं। इसकेहरे पत्तों का साग बनाया जाता है। मुलायम कांटेदार होने के कारण कंडाली के पत्तों या डंडी को सीधे नहीं छुआ जा सकता। यह अगर शरीर के किसी हिस्से में लग जाए तो वहां सूजन आ जाती है और बहुत ज्यादा जलन होती है। लेकिन, इसके साग का कोई जवाब नहीं। गांव-देहात के अनुभवी लोग इसे बड़ी सावधानी से हाथ में कपड़ा लपेटकर काटते हैं। काली दाल और चावल के साथ इसकी खिचड़ी भी बेहद स्वादिष्ट होती है।


Kandali Ka Saag
Kandali Ka Saag


काप या काफली

यह एक हरी करी है। सरसों, पालक आदि के पत्तों को पीसकर बनाया जाने वाला काप कुमाऊंनी खाने का अहम हिस्सा है, जिसे गढ़वाल में काफली कहते हैं। इसे रोटी और चावल के साथ लंच और डिनर में परोसा जाता है। यह एक शानदार और पोषक आहार है। काप बनाने के लिए हरे साग को काटकर उबाल लिया जाता है। फिर इन पत्तों को पीसकर पकाया जाता है।


KAAP (AALAN)
KAAP (AALAN)


डुबुक (डुबुके) 


डुबक भी कुमाऊं अंचल में अक्सर खाई जाने वाली डिश है। असल में यह दाल ही है, लेकिन इसमें दाल को दड़दड़ा (मोटा) पीसकर बनाया जाता है। बावजूद यह मास (उड़द) के चैस (चैंसू) से अलग है। डुबक पहाड़ी दाल भट, गहत आदि को पीसकर बनाया जाता है। लंच के समय चावल के साथ डुबुक का सेवन किया जाता है।


गहत (कुलथ) के पराठे


गहत की दाल के पराठे उत्तराखंड का एक प्रसिद्ध पकवान हैं। यह पराठे गहत की दाल को गेहूं या मंडुवे के आटे के मिश्रण में भरकर बनाए जाते हैं। देसी घी, भांग व लहसुन की चटनी या घर के बने अचार के साथ खाने का इसका स्वाद ही निराला है।




फानु (फाणु)


यह एक खास प्रकार का पहाड़ी व्यंजन है। इसके लिए विभिन्न प्रकार की दाल (विशेषकर गहत) रातभर पानी में भिगोई जाती है। फिर इस दाल को अच्छे से पीस कर फाणु बनाया जाता है। गर्म-गर्म चावल के साथ परोसे जाने पर यह व्यंजन अत्यंत स्वादिष्ट होता है। सर्दियों में फाणू-भात उत्तराखंड में बहुत ज्यादा खाया जाता है।




बाड़ी (मंडुवे का फीका हलुवा)

बाड़ी उत्तराखंड के सबसे पुराने व्यंजनों में से एक है। इसे मंडुवे के आटे से बनाया जाता है। बाड़ी में पोषक तत्व भरपूर मात्रा में होते हैं। मंडुवे के आटे को पानी में घी के साथ अच्छे से पकाकर इसे बनाया जाता है। इसे फाणू अथवा तिल की चटनी के साथ भी खाया जाता है। घर के घी और फाणू में इसका स्वाद और निखर जाता है।


चैंसू


चैंसू एक प्रोटीन युक्त लाजवाब व्यंजन है, जो कि काली दाल (उड़द) को पीसकर बनता है। यह हर पहाड़ी  के लिए एक लोकप्रिय भोजन विकल्प है। चैंसू बनाने के लिए दाल को सिल या मिक्सी में पीसा जाता है। दाल का अच्छा पेस्ट तैयार कर उसे धीमी आंच पर पकाया जाता है और फिर भात के साथ खाया जाता है। बेहतर स्वाद के लिए इसे लोहे के बर्तन (कढ़ाई) में पकाया जाता है।


थिंच्वाणी

थिंच्वाणी बनाने के लिए पहाड़ी मूला या पहाड़ी आलू को क्रश (थींचा) कर पकाया जाता है। सर्दियों में इसे रोटी या चावल के साथ बड़े चाव से खाया जाता है। जख्या या फरण का तड़का इसका स्वाद और बढ़ा देता है।


अरसा

यह पहाड़ का पारंपरिक मीठा पकवान है। आमतौर पर पहाड़ी शादियों में इसे बनाया जाता है। इसमें गुड़, चावल और सरसों के तेल का इस्तेमाल होता है। पहले चावल को कम से कम तीन-चार घंटे तक भिगोया जाता है और फिर उसे बारीक कूटकर गुड़ की चासनी के साथ पेस्ट बनाया जाता है। इस मिश्रण को छोटे-छोटे गोलों के रूप में तैयार कर तेल में तला जाता है। कहीं-कहीं अरसे तलने के बाद दोबारा गुड़ की चासनी में डाला जाता है। इसे पाक लगाना कहते हैं।


Sunday, 17 May 2020

ग्रामीणों ने स्वयं बनाया क्वारंटीन सेंटर

कोटी-माला गांव में ग्रामीणों ने स्वयं बनाया क्वारंटीन सेंटर

उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग में अगस्त्यमुनि ब्लॉक के तल्लानागपुर पट्टी के ग्राम पंचायत कोटी-मदोला में ग्रामीणों और जनप्रतिनिधियों ने आपसी सहयोग से सुविधायुक्त होम  क्वारंटीन सेंटर तैयार किया है।

यहां 14 दिन तक रहने वाले लोगों की निगरानी के लिए सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं। लॉकडाउन में प्रदेश समेत बाहरी राज्यों से प्रवासी अपने-अपने गांव पहुंच रहे हैं। इसको देखते हुए ग्राम पंचायत कोटी-मदोला के क्षेत्र पंचायत सदस्य,  ग्राम प्रधान व ग्रामीणों ने सहभागिता से होम क्वारंटीन सेंटर बनाया है। इस सेंटर को बनाने के लिए गांव के चंद्रमोहन सिंह नेगी ने टेंट नि:शुल्क दिया है।


Self Corontine Center
Self Corontine Center

खाने की भी व्यवस्था

जबकि ज्येष्ठ प्रमुख सुभाष नेगी ने सीसीटीवी कैमरे लगाए हैं। इसके अलावा सेंटर में टेलीविजन, पंखा, अलग-अलग शौचालय/बाथरूम की भी व्यवस्था की गई है। इसके साथ ही यहां आने वाले लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था भी की गई है।

क्षेत्र पंचायत सदस्य व अगस्त्यमुनि ब्लॉक के ज्येष्ठ प्रमुख सुभाष नेगी, ग्राम प्रधान रोशनी देवी ने  बताया कि ग्रीन जोन से आने वाले प्रवासियों को यहां होम क्वारंटीन किया जाएगा, जबकि रेड जोन से आने वाले प्रवासियों के लिए गांव में क्वारंटीप सेंटर तैयार किया जा रहा है। नोडल अधिकारी भगत सिंह नेगी ने कहा कि क्वारंटीन सेंटर में 20 लोगों के रहने की व्यवस्था की गई है।

बेडू पहाड़ी फल

बेडू पहाड़ी फल (Bedoo Mountain Fruit)


उत्तराखंड राज्य में कई प्राकृतिक औषधीय वनस्पतियां पाई जाती हैं , जो हमारी सेहत के लिए बहुत ही अधिक फायदेमंद होती हैं। बहुत ही कम लोग खासकर की शहरों में बसने वाले लोगों को इस पहाड़ी फल के बारे में जानकारी नहीं है। बेडू मध्य हिमालयी क्षेत्र के  जंगली फलों में से एक है। समुद्र के स्तर से 1,550 मीटर ऊपर स्थानों पर जंगली अंजीर के पौधे बहुत ही सामान्य होते हैं। यह गढ़वाल और कुमाऊँ के क्षेत्रों में इनका सबसे अच्छे से उपयोग किया जाता है।


ये पेड़ जंगलों में बहुत कम पाए जाते हैं, लेकिन गाँवों के आसपास, बंजर भूमि, खेतों आदि में उगते हैं। फल लोगों को बहुत पसंद आते हैं।  और इन्हे बिक्री के लिए भी प्रयोग किया जाता है। यह मीठा और रसदार होता है, जिसमें कुछ कसैलापन होता है, इसके समग्र फल की गुणवत्ता उत्कृष्ट है।

बेडू फल जून जुलाई में लगता है एक पूर्ण विकसित जंगली अंजीर का पेड़ अनुकूलित मौसम में  25 किलोग्राम के आस पास फल देता है।बीज सहित संपूर्ण फल खाने योग्य  होता है। बेडू के पत्ते जानवरों के लिए चारे का काम करती है यह दुधारू पशुओं के लिए काफी अच्छी मानी जाती हैं  कहा जाता है कि बेडू के पत्ते दुधारू पशुओं को खिलने से दूध में बढोतरी होती है|

बेडू
बेडू

वैसे तो बेडु का सम्पूर्ण पौधा ही उपयोग में लाया जाता है जिसमें छाल, जड़, पत्तियां, फल तथा चोप औषधियों के गुणो से भरपूर होता है| हाथ पावं में चोट लगने पर इसका चोप (बेडू पौधे से निकलने वाला सफ़ेद दूध जैसा) लगाने से चोट ठीक हो जाती है|

बेडू फल फायदे  Bedoo Fruit Benefits

बेडू एक बहुत ही स्वादिष्ट फल है। पहाड़ी क्षेत्रों में सभी के द्वारा बहुत पसंद किया जाता है। बेडू फल पकने के बाद एक रसदार फल की भाती होता है। इस फल से विभिन्न उत्पादों, जैसे स्क्वैश, जैम और जेली बनाने के काम भी आता है।

इसमें मुख्य रूप से शर्करा और श्लेष्मा गुण होते हैं और, तदनुसार कब्ज के समस्याओ में भी काफी फायदेमंद होती है |

बेडू  मे  विटामिन्स और एंटी ऑक्सीडेंट की भरपूर मात्रा है।


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Saturday, 16 May 2020

उत्‍तराखंड के पारंपरिक आभूषण..!

उत्‍तराखंड के पारंपरिक आभूषण..!



शीशफूल

शीशफूल को महिलाएं जूड़े में पहनती हैं। 
मांगटीका : मांगटीका अपने नाम के अनुसार मांग में पहना जाता है। इसे अमूमन किसी त्योहार, देवकार्य, शादी या फिर किसी अन्य शुभकार्य के अवसर पर पहना जाता है।  

नथुली

उत्तराखंड की महिलाओं को विशिष्ट पहचान दिलाती है नाक में पहने जाने वाली कुंदन जड़ी बड़ी नथ। इसके बिना उनका श्रृंगार अधूरा माना जाता है। इसे विशेष तरह की कारीगरी से तैयार किया जाता है। गढ़वाल में टिहरी नथ और छोटी नथ का प्रचलन है। इसे विवाहित महिलाएं पहनती हैं। 

बुलाक

उत्तराखंड विशेषकर गढ़वाल की महिलाएं नाक के बीच एक गहना पहनती हैं जिसे बुलाक कहते हैं। इसे अपनी सामर्थ्य के अनुसार छोटा या लंबा बनवाया जाता है। कुछ बुलाक इतनी लंबी होती हैं कि वह ठुड्डी से भी नीचे तक पहुंच जाती हैं। इसे बेसर भी कहा जाता है। 

फु​ल्लि

नाक में पहने जाने वाली लौंग। यह असल में नथ का विकल्प है। नथ को हमेशा नहीं पहना जा सकता है इसलिए महिलाएं इसे उतारकर लौंग या फुल्लि पहनती हैं। यह काफी छोटे आकार की होती है और इसलिए इसे किसी भी समय आसानी से पहना जा सकता है।

मुर्खली

चांदी की बालियां जिन्हें महिलाएं कानों के ऊपरी हिस्से में पहनती हैं।      
बाली : सोने के बने कुंडल। 
कर्णफूल या झुमकी : झुमकी पहाड़ी महिलाओं का भी पारंपरिक आभूषण है। कर्णफूल भी इसी का एक रूप है। लंबी झूमकी जिसके बीच में नग लगे होते हैं। 
गुलबंद या गुलोबंद : गुलुबंद, गुलबंद या गुलोबंद एक आकर्षक जेवर है जिसे सोने की डिजाइनदार टिकियों को पतले गद्देदार पट्टे पर सिलकर तैयार किया जाता है। गुलुबंद गढ़वाली, कुमांउनी, भोटिया और जौनसार की विवाहित महिलाओं का प्रमुख आभूषण रहा है। मंगनी यानि मांगड़ या सगाई के समय पहले गुलबंद पहनाने का ही प्रचलन था। (विस्तार से आगे दिया गया है)
हंसुळी या हांसुळी : चांदी का बना जेवर जो काफी वजनी होता है। इसे प्राचीन समय में अधिक पहना जाता है। महिलाओं के अलावा छोटे बच्चों को भी हंसुळी पहनायी जाती है लेकिन उसका वजन कम होता है। महिलाएं जिस हंसुळी को पहनती हैं उसका वजन तीन तोला तक होता है। 

चरेऊ

यह एक तरह से मंगलसूत्र का ही विकल्प है जिसे सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। सुहागिन महिला अपने गले में काले मनकों की माला पहनती हैं। इन्हीं मालाओं के बीच में सामर्थ्य के अनुसार चांदी या सोना लगाकर मंगलसूत्र तैयार किया जाता है। इसे  चरेनु भी कहा जाता है। 

तिमाण्यां

सोने के तीन मनकों से बना गले का आभूषण। 
 गले के अन्य आभूषणों कंठी, तिलहरी, चंद्रहार, हार, लाकेट आदि शामिल हैं।
पौंची या पौंजी : इन्हें कलाईयों में पहना जाता है। कंगन के आकार के होते हैं जिनमें सोने या चांदी के दाने लगे होते हैं। इन्हें भी गुलबंद की तरह कपड़े की पट्टी पर जड़कर तैयार किया जाता है। 

मुंदड़ी : मु​द्रिका या अंगूठी। मुंदरि या गुंठी भी कहा जाता है। 
धागुली या धागुले : छोटे बच्चों के हाथों में पहनाये जाने वाले चांदी के कड़े। यह सादे और डिजाइनर दोनों तरह के होते हैं। 
इनके अलावा स्यूंण, स्यूंणा या सांगल कंधे पर लगाया जाता है जो कि सेफ्टी पिन की तरह होता है। बाजू पर भी एक आभूषण पहनने का प्रचलन रहा है जिसे गोंखले कहा जाता है। 

तगड़ी

चांदी से बना आभूषण जिसे बेल्ट की तरह कमर पर पहना जाता है। पुराने जमाने में महिलाएं हमेशा इसे पहनकर रखती थी क्योंकि कहा जाता था कि लगातार काम करते रहने के बावजूद इससे कमरदर्द नहीं होता है। इसे करधनी, कमरबंद भी कहा जाता है। करधनी यानि सोने चाँदी आदि का बना हुआ कमर में पहनने का आभूषण जिसमें कई लड़ियाँ या पूरी पट्टी होती है।
झिंगोरी, झांजर, इमर्ति, पौटा, पायल, पाजेब और धागुले : पायल चांदी की बनी होती हैं। उत्तराखंड में क्षेत्र के अनुसार इनका आकार प्रकार और नाम बदल जाते हैं। गढ़वाल में महिलाएं चूड़ीनुमा पायल पहनती हैं जिन्हें धगुला या धागुले कहते हैं। पौटा जैसे गहने अब प्रचलन में नहीं हैं। 

बिछुए

पैरों की उंगलियों में पहना जाता है। ये चांदी के बने होते हैं और इन्हें सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।

Friday, 15 May 2020

सुरकंडा देवी का मंदिर।

उत्तराखंड के टिहरी जनपद में स्थित जौनुपर के सुरकुट पर्वत पर स्थित सुरकंडा देवी का मंदिर। यह स्‍थान समुद्रतल से करीब तीन हजार मीटर ऊंचाई पर है। आगे जानिए, इस मंदिर की स्‍थापना की रोचक कहानी।


Surkanda Devi
Surkanda Devi

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब हिमालय के राजा दक्ष ने कनखल में यज्ञ का आयोजन किया, तो अपने दामाद भगवान शिव को निमंत्रण नहीं भेजा। ऐसे में दक्ष की बेटी और भगवान शिव की पत्नी देवी सती नाराज हो गई।

अपने पति के अपमान के आहत माता सती ने राजा दक्ष के यज्ञ में आहूति दे दी। इससे भगवान शिव उग्र हो गए। उन्होंने माता सती का शव त्रिशूल में टांगकर आकाश भ्रमण किया। इस दौरान नौ स्‍थानों पर देवी सती के अंग धरती पर पड़े। वे स्‍थान शक्तिपीठ कहलाए।

Surkanda Devi
Surkanda Devi

इसी में देवी सती का सिर जहां गिरा। वह स्‍थान माता सुरकंडा देवी कहलाया। पौराणिक मान्यता है कि देवताओं को हराकर राक्षसों ने स्वर्ग पर कब्जा कर लिया था। ऐसे में देवताओं ने माता सुरकंडा देवी के मंदिर में जाकर प्रार्थना की कि उन्हें उनका राज्य मिल जाए। उनकी मनोकामना पूरी हुई और देवताओं ने राक्षसों को युद्घ में हराकर स्वर्ग पर अपना आधिपत्य स्‍थापित किया।

Surkanda Devi
Surkanda Devi


Surkanda Devi
Surkanda Devi


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परियों की नगरी..!


परियों की कहानियां बचपन में तो आपने जरूरी पढ़ी और सुनी होगी। कहते हैं परियां बहुत ही सुंदर होती हैं और जिन पर मेहरबान हो जाएं उसे मालामाल बना देती हैं। इंसानों से इनके प्रेम के किस्से भी पहड़ों पर सुनाए जाते हैं। तो किस्सों की दुनिया से आगे निकलते हुए एक ऐसी जगह की ओर चलते हैं जहां आज भी लोग परियों और वनदेवियों को देखने का दावा करते हैं।

परियों की हसीन दुनिया में हम जहां आपको लेकर जा रहे हैं वह दिल्ली से बहुत दूर नहीं है। उत्तराखंड के ऋषिकेश से आप सड़क मार्ग से गढ़वाल जिले के फेगुलीपट्टी के थात गॉव तक किसी सवारी से पहुंच सकते हैं। यहां से पैदल परियों की नगरी तक यात्रा करनी पड़ती है।
Khaint Parvat
Khaint Parvat


थात गांव के पास ही गुंबदाकार का पर्वत है जिसे खैट पर्वत कहते हैं। समुद्रतल से करीब 10000 फीट की ऊचाई पर यह पर्वत जन्नत से कम नहीं है। कहते हैं यहां लोगों को अचानक ही कहीं परियों के दर्शन हो जाते हैं। लोगों का ऐसा मानना है कि परियां आस-पास के गांवों की रक्षा करती हैं।

थात गॉव से करीब 5 किलोमीटर की दूरी पर खैटखाल नाम का एक मंदिर है जिसे यहां के रहस्यों का केन्द्र माना जाता है। यहां परियों की पूजा होती है और जून के महीने में मेला लगता है।

परियों को चटकीला रंग, शोर और तेज संगीत पसंद नहीं है इसलिए यहां इन बातों की मनाही है। यहां एक जीतू नाम के व्यक्ति की कहानी भी काफी चर्चित है। कहते हैं जीतू की बांसुरी की तान पर आकर्षित होकर परियां उसके सामने आ गईं और उसे अपने साथ ले गईं।

यहां एक रहस्यमयी गुफा भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसके आदि अंत का पता नहीं चल पाया है। इस स्थान का संबंध महादेव द्वारा अंधकासुर और देवी द्वार शुंभ निशुंभ के वध से भी जोड़ा जाता है। कुछ लोग अलौकिक कन्याओं को योगनियां और वनदेवी भी मानते हैं।


जो भी है यहां रहस्य और रोमांच का अद्भुत संगम है। अगर रोमांच चाहते हैं तो एक बार जरूर यहां की सैर कर आएं। परियां मिले ना मिले लेकिन आपका अनुभव किसी परिलोक की यात्रा से कम नहीं होगा।


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GIC इन्टर कॉलेज रिखणीखाल।


रिखणीखाल भारत के उत्तराखंड राज्य में पौड़ी गढ़वाल जिले में स्थित एक ब्लॉक है।

उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्र में स्थित, यह पौड़ी गढ़वाल जिले के 15 ब्लॉकों में से एक है। प्रशासन के रजिस्टर के अनुसार, रिखणीखाल का ब्लॉक कोड 47 है। ब्लॉक में 190 गांव हैं।
इस ब्लॉक में कुल 6978 परिवार हैं।


मैं रिखणीखाल इंटर कॉलेज का छात्र रहा हूं। मैंने वर्ष 2000 में कक्षा 6 में दाखिला लिया और वर्ष 2006 में कक्षा 12 उत्तीर्ण की। हालांकि मैं अपनी कक्षा में प्रथम तो नहीं आता था, पर मैं दूसरे स्थान तक आ ही जाता था।

हमारे स्कूल के सभी शिक्षक बहुत अच्छे थे, उन सभी ने आदर्श शिक्षक का कर्तव्य निभाया। समय का सही इस्तेमाल किया और बच्चों को समय के महत्व के बारे में बताया। समय के अनुसार योजनाबद्ध तरीके से विषय की पूरी जानकारी देते थे। ताकि बच्चे अच्छे से सीख सकें।

शिक्षक को समाज की रीढ़ की हड्डी  कहा जाता है क्योंकि वे हमारे चरित्र  के निर्माण, भविष्य को आकार देने में और देश का आदर्श  नागरिक  बनाने में  हमारी मदद करते है।

हमारे समय में अध्यापक छात्रों को उदण्डता के लिए दण्ड दिया करते थे  क्यूंकि उस  समय मे शिक्षक एक ईश्वर की तरह वास्तविक रूप से पूज्यनीय होते थे।अभिभावक अध्यापकों पर बच्चो  से ज्यादा भरोसा  करते थे।  आज अभिभावक शिक्षक पर अपने बच्चों से ज्यादा भरोसा नहीं करता पहले शिक्षक की बात पर विश्वास किया जाता था। पहले माता पिता अपने से ज्यादा शिक्षक को बच्चों का शुभचिंतक मानते थे।

मुझे आज भी याद है, मैं जब कक्षा 10 में पढता था। दरअसल हमारा गांव स्कूल से काफी दूर था (पहाड़ी मार्ग से लगभग 5 से 6 किलोमीटर) दूर था हम  रोज पैदल चलकर स्कूल पहुँचते थे ।  कक्षा 10 तक तो  हम रोज पैदल चलकर समय पर स्कूल  पहुँचते थे।  लेकिन बड़ी कक्षा में जाने के बाद थोड़ा आलसी हो गए थे और पैदल चलने से बचने के लिए बस का इंतजार करते थे (बस का समय  08:30 मेरे गांव कंडिया) पहुँचने का था पर बस हमेशा समय  पर नहीं आती थी कई बार तो 09:30 - 10:00 AM तक पहुँचती थी और हम तब तक इंतजार करते थे और फिर अक्सर देरी से स्कूल पहुँचते थे। जिस कारण हम प्रार्थना में नहीं पहुँच पाते थे।

लेकिन कब तक बचते जब ये सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन गुरुजनो को इसका पता चला और  हमारे अध्यापको ने हमें सबक सिखाने के लिए पनिशमेंट दी, जो आज भी याद आती है।  उन्होंने पहले तो छड़ी से हमारी खूब धुलाई की और फिर मुर्गा बनाकर फील्ड का चक्कर मरवाया। हालाँकि आज के  समय में ऐसा मुमकिन  नहीं है।

बच्चों में जीवन जीने के सलीके में बहुत बदलाव आ गया है। आज का नागरिक अपना जीवन अपने अंदाज में व्यतीत करना चाहता है। इसमें किसी का हस्तक्षेप करना उसे बिल्कुल पसंद नहीं है।


खेल प्रतियोगिताएं 

समय-समय पर यहां खेल प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती थी । रिखणीखाल स्कूल की एक विशेषता यह थी कि यहाँ का खेल मैदान बाकी स्कूलों की तुलना में बहुत बड़ा था, जिसके कारण हमारे स्कूल में खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन होता था और सभी स्कूल (ब्लॉक) खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेते थे। बिजेता टीम को अध्यापको द्वारा पुरुष्कार देकर सम्मानित भी किया जाता था। और फिर राज्य स्तर के लिए पौड़ी भेजा जाता था । वैसे  तो  कई प्रकार की खेल प्रतियोगिताएं होती रहती थी पर इनमे सबसे लोकप्रिय था बॉलीबॉल और कब्बडी.

उस समय स्कूल में छात्रों की संख्या बहुत अधिक थी, लगभग  800 से 1000 छात्र रहे होंगे  और  प्रत्येक कक्षा में लगभग 30 से ४० छात्र हुआ करते थे ।






हमारे समय में यह एक इंटर कॉलेज था, लेकिन आज यह डिग्री कॉलेज है।


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Thursday, 14 May 2020

बद्रीनाथ के कपाट 15 मई 2020 को खुलेंगे (Badrinath will open on 15 May 2020)

कोरोना की वजह से इतिहास में पहली बार, केदारनाथ और बद्रीनाथ मंदिर के कपाट खुलने की तारीख बदली...

चारधाम / बद्रीनाथ के कपाट 15 मई को खुलेंगे, मुख्य पुजारी समेत 27 लोग मौजूद रहेंगे; श्रद्धालुओं को इजाजत नहीं



बद्रीनाथ धाम के कपाट 15 मई को सुबह 4.30 बजे खुलेंगे। इस दौरान मुख्य पुजारी (रावल) समेत सिर्फ 27 लोग मौजूद रहेंगे। इनमें पुजारी और देवस्थान बोर्ड के अधिकारी शामिल होंगे। श्रद्दालुओं को मौजूद रहने की इजाजत नहीं होगी। जोशीमठ के सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट अनिल चन्याल ने यह जानकारी दी है। मुख्य पुजारी ईश्वरी प्रसाद नंबूदरी का कोरोना टेस्ट दो बार निगेटिव आ चुका है। वे दो हफ्ते का क्वारैंटाइन पूरा कर चुके हैं। केरल से लौटने की वजह से उन्हें क्वारैंटाइन किया गया था।

देवस्थान बोर्ड ने तैयारियां पूरी कीं
पहले 30 अप्रैल को कपाट खोलने का शेड्यूल था, लेकिन लॉकडाउन और मुख्य पुजारी के क्वारैंटाइन होने की वजह से तारीख आगे बढ़ाई गई थी। सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखते हुए कम से कम लोगों की मौजूदगी में कपाट खोलने का फैसला लिया गया है। उत्तराखंड देवस्थान बोर्ड ने बर्फ हटाने से लेकर पानी-बिजली तक के इंतजाम पूरे कर लिए हैं। तैयारियों में जुटे लोगों के लिए मास्क पहनना जरूरी है।

केदारनाथ धाम के कपाट पहले ही खुल चुके है।  
29 अप्रैल को सुबह 6 बजकर 10 मिनट पर केदारनाथ के कपाट खुले। इस बार कपाट खुलने के दौरान 15-16 लोग ही मौजूद रहे। इस दौरान सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखा गया। पिछले साल केदारनाथ के कपाट खुलने के दिन 3 हजार लोगों ने दर्शन किए थे।

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English Translation


For the first time in history, due to Corona, the date of opening of the doors of Kedarnath and Badrinath Temple changed.

The doors of Chardham / Badrinath will open on 15 May, 27 people including the chief priest will be present; Devotees not allowed

The doors of Badrinath Dham will open on May 15 at 4.30 am. Only 27 people, including the chief priest (Rawal), will be present during this period. These will include priests and officials of the Devasthan Board. Worshipers will not be allowed to be present. Sub-divisional magistrate of Joshimath, Anil Chanyal has given this information. The corona test of chief priest Ishwari Prasad Namboodri has been negative twice. They have completed two weeks of quarantine. He was quarantined as he returned from Kerala.

Devasthan board completed the preparations
The schedule was previously scheduled to open on April 30, but the date was pushed forward due to the lockdown and quarantine of the chief priest. Keeping in mind the social distancing, it has been decided to open the valve in the presence of at least people. Uttarakhand Devasthan Board has completed arrangements ranging from snow removal to water and electricity. Wearing masks is necessary for people engaged in preparations.

The doors of Kedarnath Dham have already opened.
Kedarnath doors opened at 6.10 am on 29 April. This time only 15-16 people were present during the opening of the doors. During this, social distancing was taken care of. Last year, 3 thousand people visited Kedarnath kapat opening.